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त्वम॑ग्ने द्रविणो॒दा अ॑रं॒कृते॒ त्वं दे॒वः स॑वि॒ता र॑त्न॒धा अ॑सि। त्वं भगो॑ नृपते॒ वस्व॑ ईशिषे॒ त्वं पा॒युर्दमे॒ यस्तेऽवि॑धत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne draviṇodā araṁkṛte tvaṁ devaḥ savitā ratnadhā asi | tvam bhago nṛpate vasva īśiṣe tvam pāyur dame yas te vidhat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। अ॒र॒म्ऽकृते॑। त्वम्। दे॒वः। स॒वि॒ता। र॒त्न॒ऽधाः। अ॒सि॒। त्वम्। भगः॑। नृ॒ऽप॒ते॒। वस्वः॑। ई॒शि॒षे॒। त्वम्। पा॒युः। दमे॑। यः। ते॒। अवि॑धत्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:1» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सूर्य के समान सुख देनेवाले ! (त्वम्) आप (अरङ्कृते) पूरे पुरुषार्थ करनेवाले के लिये (द्रविणोदाः) धन देनेवाले (त्वम्) आप (रत्नधाः) रत्नों को धारण और (सविता) ऐश्वर्य के प्रति प्रेरणा करनेवाले (देवः) मनोहर (असि) हैं। हे (नृपते) मनुष्यों की पालना करनेवाले और (भगः) ऐश्वर्यवान् (त्वम्) आप (वस्वः) धनों की (इशिषे) ईश्वरता रखते हैं। (यः) जो (ते) आपके (दमे) निज घर में (अविधत्) विधान करता है। उसके (त्वम्) आप (पायुः) पालनेवाले हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुषार्थी मनुष्यों का सत्कार तथा आलस्य करनेवालों का तिरस्कार करनेवाले और सेवकों के लिये सुख देनेवाले ऐश्वर्यवान् हों, वे इस संसार में सबके राजा होने को योग्य होवें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने त्वमरङ्कृते द्रविणोदाः त्वं रत्नधाः सविता देवोऽसि । हे नृपते भगवँस्त्वं वस्व इशिषे यो दमे तेऽविधत् त्वत्सेवां विदधाति तस्य त्वं पायुरसि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) सूर्यवत् सुखप्रदातः (द्रविणोदाः) धनप्रदः (अरङ्कृते) पूर्णपुरुषार्थिने (त्वम्) (देवः) कमनीयः (सविता) ऐश्वर्यं प्रति प्रेरकः (रत्नधाः) यो रत्नानि दधाति सः (असि) (त्वम्) (भगः) ऐश्वर्यवान् (नृपते) नृणां पालक (वस्वः) वसूनि (इशिषे) (त्वम्) (पायुः) पालकः (दमे) निजगृहे (यः) (ते) तव (अविधत्) विदधाति ॥७॥
भावार्थभाषाः - ये पुरुषार्थिनां मनुष्याणां सत्कर्त्तारोऽलसानां तिरस्कर्त्तारः परिचारकेभ्यः सुखस्य दातार ऐश्वर्यवन्तो भवेयुस्त इह नृपतयो भवितुमर्हेयुः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पुरुषार्थी माणसांचा सत्कार व आळशांचा तिरस्कार करतात, सेवकांना सुख देतात, ऐश्वर्यवान बनतात, ते या जगात सर्वांचे राजे होण्यायोग्य असतात. ॥ ७ ॥